भारतीय बच्चों में बढ़ रही हिंसक प्रवृत्ति चिन्ताजनक
भारतीय बच्चों में बढ़ रही हिंसक प्रवृत्ति चिन्ताजनक है। पिछले कुछ समय से स्कूली बच्चों में बढ़ती हिंसा की प्रवृत्ति निश्चित रूप से डरावनी एवं खैफनाक है। चिंता का बड़ा कारण इसलिए भी है क्योंकि जिस उम्र में बच्चों के मानसिक और सामाजिक विकास की नींव रखी जाती है, उसी उम्र में कई बच्चों में आक्रामकता घर करने लगी है और उनका व्यवहार हिंसक होता जा रहा है। जिस उम्र में बच्चों को पढ़ाई-लिखाई और खेलकूद में व्यस्त रहना चाहिए, उसमें उनमें बढ़ती आक्रामकता, हिंसा एवं क्रूरता एक अस्वाभाविक और परेशान करने वाली बात है। कई घटनाओं में स्कूल में पढ़ने वाले किसी बच्चे ने अपने सहपाठी पर चाकू या किसी घातक हथियार से हमला कर दिया और उसकी जान ले ली। अमेरिका की तर्ज पर भारत के बच्चों में हिंसक मानसिकता का पनपना हमारी शिक्षा, पारिवारिक एवं सामाजिक संरचना पर कई सवाल खड़े करती है। यह दुष्प्रवृत्ति बच्चों के शैक्षणिक प्रदर्शन पर तो नकारात्मक प्रभाव डाल ही रही है, इसे भविष्य में समाज की शांति के लिए बड़ा खतरा भी मानना चाहिए। राजस्थान के उदयपुर के स्कूल में दो छात्रों के आपसी विवाद में चाकू मारने से एक छात्र की मौत भी बच्चों में पनप रहे इसी हिंसक बर्ताव का घिनौना एवं घातक रूप है।
बड़ा सवाल है कि जिन वजहों से बच्चों के भीतर आक्रामकता एवं हिंसा पैदा हो रही है, उससे निपटने के लिए क्या किया जा रहा है! पाठ्यक्रमों का स्वरूप, पढ़ाई-लिखाई के तौर-तरीके, बच्चों के साथ घर से लेकर स्कूलों में हो रहा व्यवहार, उनकी रोजमर्रा की गतिविधियों का दायरा, संगति, सोशल मीडिया या टीवी से लेकर उसकी सोच-समझ को प्रभावित करने वाले अन्य कारकों से तैयार होने वाली उनकी मनःस्थितियों के बारे में सरकार, समाजकर्मी एवं अभिभावक क्या समाधान खोज रहे हैं। बच्चों के व्यवहार और उनके भीतर घर करती प्रवृत्तियों पर मनोवैज्ञानिक पहलू से विचार किए बिना समस्या को कैसे दूर किया जा सकेगा? बच्चों के बस्ते की औचक जांच की व्यवस्था की अपनी अहमियत हो सकती है। मगर जरूरत इस बात की है कि बच्चों के भीतर बढ़ती हिंसा और आक्रामकता के कारणों को दूर करने को लेकर गंभीर काम किया जाए। उदयपुर की घटना के पूरे मामले की पुलिस अपने तरीके से जांच करेगी, लेकिन किशोर अवस्था में ऐसी घटना को अंजाम देने के पीछे बच्चे की मानसिकता का पता लगाना भी ज्यादा जरूरी है।
तहकीकात स्कूल की व्यवस्थाओं की भी होनी चाहिए कि आखिर बच्चा स्कूल में हथियार लेकर कैसे आ गया? इसमें दो राय नहीं कि किशोरवय में राह भटकने का खतरा ज्यादा रहता है। उम्र के इस पड़ाव पर उनको सही राह दिखाने की जिमेदारी परिजन और शिक्षक की ही होती है। आज दोनों ही कहीं न कहीं अपनी जिमेदारी से दूर होते नजर आ रहे हैं। स्कूल में केवल किताबी ज्ञान पर ज्यादा जोर दिया जा रहा है। वहीं अर्थप्रधान दुनिया में माता-पिता के पास बच्चों के साथ बिताने के लिए समय ही नहीं बच पा रहा।
‘मन जो चाहे वही करो’ की मानसिकता वहां पनपती है जहां इंसानी रिश्तों के मूल्य समाप्त हो चुके होते हैं, जहां व्यक्तिवादी व्यवस्था में बच्चे बड़े होते-होते स्वछन्द हो जाते हैं। ‘मूड ठीक नहीं’ की स्थिति में घटना सिर्फ घटना होती है, वह न सुख देती है और न दुःख। ऐसी स्थिति में बच्चे अपनी अनंत शक्तियों को बौना बना देता है। यह दकियानूसी ढंग है भीतर की अस्तव्यस्तता को प्रकट करने का। पारिवारिक एवं सामाजिक उदासीनता एवं संवादहीनता से ऐसे बच्चों के पास सही जीने का शिष्ट एवं अहिंसक सलीका नहीं होता। वक्त की पहचान नहीं होती। ऐसे बच्चों में मान-मर्यादा, शिष्टाचार, संबंधों की आत्मीयता, शांतिपूर्ण सहजीवन आदि का कोई खास ख्याल नहीं रहता। भौतिक सुख-सुविधाएं ही जीवन का अंतिम लक्ष्य बन जाता है। भारतीय बच्चों में इस तरह का एकाकीपन उनमें गहरी हताशा, तीव्र आक्रोश और विषैले प्रतिशोध का भाव भर रहा है। वे मानसिक तौर पर बीमार बन रहे हैं और अपने पास उपलब्ध खतरनाक एवं घातक हथियारों का इस्तेमाल कर हत्याकांड कर बैठते हैं। शिक्षकों और परिजनों से संवादहीनता के चलते बच्चों ने मोबाइल फोन और सोशल मीडिया को संवाद का जरिया बना लिया है। कई बार टी.वी. पर हिंसक कार्यक्रम देखने आदि से बच्चों में हिंसक व्यवहार बढ़ जाता है। घर में लगातार बंदूकें, चाकू आदि देखते रहने से भी बच्चों का व्यवहार हिंसक हो जाता है। वैसे भी अगर बच्चों को किसी भी बात के लिए मना नहीं करेंगें, टोकेंगें नहीं तो उन्हें अच्छे-बुरे की पहचान कैसे होगी। एक ऑनलाइन सर्वे में माता-पिता ने कहा था कि बच्चों को गलत काम की सजा भी मिलनी चाहिए, वरना उनके मन में किसी भी बात के लिए डर नहीं रहेगा और हो सकता है वे ऐसे अपराधों को भी अंजाम देने लगें, जिनके परिणामों के बारे में उन्हें पता नहीं।
स्कूली बच्चों में पिछले कुछ समय से हिंसक प्रवृत्ति तेजी से बढ़ रही है, जो समाज के लिए खतरे की घंटी से कम नहीं है। मनोविज्ञानी यह मानते हैं कि मोबाइल पर पबजी जैसे खतरनाक गेम और वेब सीरिज बच्चों को हिंसक बना रही है। लेकिन, इसके पीछे न सिर्फ स्कूल का वातावरण, बल्कि लाड-प्यार में अंधे अभिभावकों का रवैया भी कम जिम्मेदार नहीं है। बच्चों में हिंसक व्यवहार के संकेत, जैसे गलत भाषा का प्रयोग करना, समझाने पर भी गुस्सा करना, कोई भी बात समझाने पर चीजें फैंकने लगना, मां-बाप को ही मारने दौडना, लोगों के बारे में गलत बोलना, गलत आदतों में पडना, भाई-बहन के लिए स्नेह न रखना, लड़ाकू प्रवृत्ति का होना, हमेशा उदास रहना, संवेदनहीन और चिड़चिड़े रहना, बार-बार जोश में आना आपको नजर आ सकते हैं। एकल परिवारों में माता-पिता इतने व्यस्त होते हैं कि उनके पास बच्चों से बात करने का ज्यादा समय नहीं होता। वे अक्सर इस बात पर भी नजर नहीं रख पाते कि बच्चे क्या कर रहे हैं, क्या खेल रहे हैं, उनके दोस्त कौन-कौन से हैं। दोस्त उन्हें चिढ़ाते भी हैं कि अरे! तुम्हारे माता-पिता कैसे हैं, जो तुम्हें ऑनलाइन खेल भी नहीं खेलने देते। इससे बच्चों में हीनता और अपने घर वालों के प्रति नफरत का भाव पैदा होता है, जो अपराध के रूप में बाहर निकलता है। फिजिकल, ओरल या सैक्सुअल रूप में गलत व्यवहार, घरेलू वातावरण न मिलना, माता-पिता द्वारा बच्चों की अनदेखी, दर्दनाक घटना होने या फिर स्ट्रैस होना, बच्चों को धमकाना, फैमिली प्रॉब्लम, नशीली चीजों का सेवन, शराब और अन्य गलत चीजों के सेवन से बच्चों में आक्रामकता बढ़ सकती है और वे हिंसक हो सकते हैं।
ऑस्ट्रिया के क्लागेनफर्ट विश्वविद्यालय की ओर से किशोरों पर किए गए अध्ययन में पता चला है कि दुनिया भर में 35.8 प्रतिशत से ज्यादा किशोर मानसिक तनाव, अनिद्रा, अकारण भय, पारिवारिक अथवा सामाजिक हिंसा, चिड़चिड़ापन अथवा अन्य कारणों से जूझ रहे हैं। एकाकीपन बढ़ने से वे ज्यादा आक्रामक और विध्वंसक सोच की तरफ बढ़ने लगे हैं। घर में बच्चों के लिए स्वस्थ, सुरक्षित, और प्रेमपूर्ण वातावरण बनाने के साथ अभिभावकों को अपने बच्चों की ऑनलाइन गतिविधियों पर नजर रखनी चाहिए। स्कूलों में काउंसलर और मानसिक स्वास्थ्य परामर्शदाता की व्यवस्था होनी चाहिए, जो बच्चों की मानसिक समस्याओं को समझें और उनका समाधान कर सकें। सबसे बड़ी बात यह कि शिक्षकों को बच्चों के आचरण और उनकी समस्याओं के प्रति संवेदनशील बनाने के लिए प्रशिक्षण देना होगा। ऐसा करने पर वे बच्चों के चाल-चलन की बारीकी से निगरानी कर सकेंगे। बच्चों के व्यवहार और उनके भीतर घर करती प्रवृत्तियों पर मनोवैज्ञानिक पहलू से विचार किए बिना समस्या को कैसे दूर किया जा सकेगा?
बच्चों से जुड़ी हिंसा की इन वीभत्स एवं त्रासद घटनाओं से जिन्दगी इतनी सहम गयी है कि गलत धारणाओं को मिटाने के लिये इस तरह की विकृत सोच एवं तथाकथित विकास से जुड़े शत्रु को पीठ के पीछे नहीं, सामने रखना होगा। सोचना होगा कि खुशहाली का पैमाना सिर्फ आर्थिक सम्पन्नता, शक्ति एवं सत्ता नहीं हो सकता। हमें मानवीय मूल्यों के लिहाज से भी विकास की परख करनी होगी। बच्चों के भीतर हिंसा मनोरंजन की जगह ले रही है। इसी का नतीजा है कि छोटे-छोटे स्कूली बच्चे भी अपने किसी सहपाठी से रंजिश के चलते उस पर गोली चलाते देखे गये हैं।
ललित गर्ग
लेखक,पत्रकार, स्तंभकार