पडोसी देशों में भारत-विरोधी सरकारों के गठन की चिन्ता

भारत के पडोसी देशों में अस्थिरता एवं अराजकता का माहौल चिन्ताजनक है। बांग्लादेश के साथ-साथ भारत के पड़ोसी मुल्कों में हुए हालिया अराजक, हिंसक एवं अस्थिरता के घटनाक्रमों से एक तस्वीर बनती है एवं एक सन्देश उभर कर आता है, वह है, चीनी के द्वारा भारत विरोधी सरकारों के गठन की साजिश। सिर्फ बांग्लादेश ही नहीं, बल्कि मालदीव, नेपाल, पाकिस्तान, अफगानिस्तान और श्रीलंका में राजनीतिक उथल-पुथल और तख्तापलट के बाद अस्तित्व में आई सरकारों ने भारत के लिए चुनौतीपूर्ण हालात पैदा कर दिए हैं। भारत को सतर्क एवं सावधानी बरतने की जरूरत है। अब सवाल ये उठते हैं कि भारत के पड़ोसी देशों में हो रही इस अराजकता एवं अस्थिरता के कारण क्या हैं? यह सिर्फ एक संयोग है या फिर साजिश? क्या इसके पीछे चीन का हाथ है? क्या पाकिस्तान भी इसके लिये जिम्मेदार है? पड़ोसी देशों में पनप रही इस राजनीतिक अस्थिरता का भारत पर क्या असर होगा?

इसकी भरी-पूरी आशंका है कि चीन ने पाकिस्तानी तत्वों के जरिये शेख हसीना विरोधी आंदोलन को हवा दी। निश्चित ही शेख हसीना की छवि एक अधिनायकवादी शासक की बनी और पश्चिमी देश विशेषकर अमेरिका उनकी निंदा करने में मुखर हो उठा। अमेरिका उनकी नीतियों से पहले से ही खफा था, क्योंकि वह मानवाधिकार और लोकतंत्र पर उसकी नसीहत सुनने को तैयार नहीं थीं। उनका सत्ता से बाहर होना भारत के लिए अच्छी खबर नहीं है, बांग्लादेश में एक अर्से से भारत विरोधी ताकतें सक्रिय हैं। उनका भारत विरोधी चेहरा आरक्षण विरोधी आंदोलन के दौरान भी दिखा। यह ठीक नहीं कि हिंसक प्रदर्शनकारी अभी भी हिंदुओं और उनके मंदिरों के साथ भारतीय प्रतिष्ठानों को निशाना बना रहे हैं। लगभग ऐसी ही स्थितियां चीन और पाकिस्तान ने मालदीव, नेपाल, अफगानिस्तान और श्रीलंका में खड़ी की है।

हसीना का जाना या उनका निष्कासन चीन एवं पाकिस्तान की साजिशों का परिणाम है, जो भारत के लिए कई मायनों में झटका है। इसका यह मतलब भी है कि भारत ने पड़ोस में अपने इकलौते स्थिर साथी को अब खो दिया है। भारत अपने चारों ओर से बदहाल, कट्टरवादी, अराजक एवं अस्थिर पड़ोसियों से घिरा है। हमारे पड़ोस में अफगानिस्तान है, जिस पर कट्टरपंथी तालिबान का राज है। भारत-विरोधी समूहों को समर्थन देने का उसका एक काला इतिहास रहा है। पाकिस्तान तो भारत का दुश्मन देश ही है। एक बेहद अशांत पड़ोस, जो कट्टरपंथियों, सैन्य शासकों, दिवालिया अर्थव्यवस्थाओं और जलवायु-परिवर्तन के कारण डूबते देशों में अग्रणी है। अपनी आर्थिक बदहाली के बावजूद वह भारत विरोधी षडयंत्र रचता ही रहता है। वह राजनीतिक अस्थिरता का पर्याय है। विडम्बना देखिये कि पाकिस्तान के एक भी वजीरे-आजम ने अपना कार्यकाल पूरा नहीं किया है। हमेशा वहां की फौज ने उनके कार्यकाल में टांग डाली है। दक्षिण में श्रीलंका और मालदीव हैं। श्रीलंका 2022 में दिवालिया हो गया था। वहां से सामने आई तस्वीरें एवं घटनाक्रम आज के बांग्लादेश से काफी मिलती-जुलती रही हैं। वहां भी प्रदर्शनकारियों ने बड़ा जनआंदोलन किया और जनता ने राष्ट्रपति भवन पर कब्जा कर लिया, जिस कारण राष्ट्रपति गोटाबाया को देश छोड़कर भागना पड़ा था। आर्थिक दिवालियेपन का शिकार यह देश चीन के कर्ज के जाल में फंसा हुआ है। श्रीलंका के कर्ज का एक बड़ा हिस्सा चीन का था, जिस कारण चीन ने यहां के हंबनटोटा बंदरगाह पर कब्जा कर लिया था। हालात यह हो गए थे कि श्रीलंका का विदेशी मुद्रा भंडार खाली हो गया था।

मालदीव एक समय भारत का सहयोगी हुआ करता था। वहां की अर्थव्यवस्था चीन और भारत पर निर्भर है। हालांकि, मालदीव की भारत से नजदीकी हमेशा चीन को खटकती थी, जिस कारण उसने इस देश को अपने कर्ज के जाल में फंसाया। धीरे-धीरे इस देश की माली हालत बुरी होने लगी, जिसके बाद यहां चीन समर्थक और इंडिया आउट का नारा देने वाले मोहम्मद मुइज्जू की सरकार बनी। पाकिस्तान एवं चीन के दबाव में उनके नए राष्ट्रपति के सुर बदले हुए हैं। वहां भारत-विरोधी स्वर उग्रतम बने हुए हैं। मुइज्जू ने राष्ट्रपति बनने के बाद सबसे पहले चीन का ही दौरा किया था और इसके बाद उन्होंने कई भारत विरोधी फैसले किए, जिसमें मालदीव से भारतीय सैनिकों की वापसी भी शामिल थी। वहां भारत-विरोधी स्वर उग्रतम बने हुए हैं।

नेपाल बीते कई सालों से राजनीतिक अस्थिरता के दौरे से गुजर रहा है। हाल ही में यहां एक बार फिर से सत्ता परिवर्तन हुआ और प्रो-भारत माने जाने वाली प्रचंड सरकार सत्ता से बाहर हो गई। अब यहां चीन समर्थक केपी शर्मा ओली की सरकार है। ओली इससे पहले 2015-16 में नेपाल के प्रधानमंत्री रह चुके हैं। उस समय भारत और नेपाल के संबंध काफी तनावपूर्ण रहे थे। नेपाल में गत 16 वर्षों में 14 सरकारें बदल चुकी हैं। हालात इतने बदहाल हैं कि वहां पर कुछ लोग राजशाही को फिर से बहाल करना चाहते हैं। नेपाल में भी चीन ने जाल बिछा रखा है। चीन विस्तारवादी, अलोकतांत्रिक और अपने आस-पड़ोस के देशों के साथ धौंस-डपट करने वाला देश है। वह भारत के भूखंडों पर अपनी मिल्कियत जताता रहता है। भूटान में घरेलू राजनीति स्थिर है, लेकिन वह चीन के साथ सीमा-समझौते पर हस्ताक्षर करना चाहता है, और यह भारत के लिए चिंता का बड़ा कारण है।

भारतीय उपमहाद्वीप के मालदीव, नेपाल, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, भुटान और श्रीलंका के बाद अब बांग्लादेश में उत्पन्न होने वाली प्रतिकूल परिस्थितियों को दुनिया चुपचाप सब देख रही है, वहीं भारत इसके लिए खुद को तैयार कर रहा है, क्योंकि बांग्लादेश की घटनाओं का उस पर सीधा असर होगा। भारत शांति कायम रखने एवं पडोसी देशों से मित्रता कायम रखने के अपने संकल्पों एवं रणनीतियों के लिए इन देशों पर भरोसा नहीं कर सकता। हमारे इर्द-गिर्द मची उथलपुथल, अस्थिरता एवं अराजकता हमारे वैश्विक एजेंडे को भी बाधित करती है। भारत की आबादी 1.4 अरब है। उसके सभी पड़ोसियों की कुल आबादी 50 करोड़ है। अर्थव्यवस्था के साथ भी ऐसा ही है। भारत की जीडीपी तीन ट्रिलियन डॉलर है। बाकी सब मिलाकर लगभग एक ट्रिलियन हैं। भारत समर्थ है, शक्ति सम्पन्न है, दुनिया की तीसरी अर्थ-व्यवस्था बनने की ओर अग्रसर है, इसलिये उसे अधिक बलों की तैनाती, अधिक रक्षा खर्च और सीमाओं पर अधिक बुनियादी ढांचों का निर्माण करना होगा। क्योंकि भारत के सभी पडोसी देशों पर चीन का दबदबा है और उसके दबाव में भारत के लिये कभी भी संकट बन सकते हैं।

बांग्लादेश के घटनाक्रम पर भारत की सतर्कता, विवेक एवं समझदारी सराहनीय है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में सरकार पडोसी देशों में उत्पन्न हालातों पर समझ एवं संयम से कदम उठाती रही है। बांग्लादेश की तख्तापलट घटनाओं पर भी उसने पहले सर्वदलीय बैठक बुलाई, विपक्षी दलों ने महत्वपूर्ण भूमिका के साथ अपनी बात रखी। ऐसे ज्वलंत मुद्दों पर सर्वसम्मति बनना जीवंत लोकतंत्र का प्रमाण है। ऐसा अनुकरणीय उदाहरण पडोसी देशों में न मिलना ही उनकी अस्थिरता एवं अराजकता का बड़ा कारण है। किसी भी लोकतांत्रिक देश में ऐसी स्थिति कतई नहीं बननी चाहिए कि जहां राजनीतिक दलों के बीच दूरियां इस कदर बढ़ जायें कि फौज का दखल देना पड़े या पडोसी देश अपनी स्वार्थों की रोटियां सेंकने में सफल हो जाये। भारत के पडोसी देशों के लोग केवल बुराइयों से लड़ते नहीं रह सकते, वे व्यक्तिगत एवं सामूहिक, निश्चित सकारात्मक लक्ष्य के साथ जीना चाहते हैं। अन्यथा जीवन की सार्थकता नष्ट हो जाएगी।

इन पडोसी देशों के नेता दो तरह के हैं- एक वे जो कुछ करना चाहते हैं, दूसरे वे जो कुछ होना चाहते हैं। असली नेता को सूक्ष्मदर्शी और दूरदर्शी होकर, प्रासंगिक और अप्रासंगिक के बीच भेदरेखा बनानी होती है। संयुक्त रूप से कार्य करें तो सभी पडोसी देश मिलकर विश्व में एक बड़ी ताकत बन सकते हैं। लेकिन उन्होंने सहचिन्तन को शायद कमजोरी मान रखा है। नेतृत्व के नीचे शून्य तो सदैव खतरनाक होता ही है पर यहां तो ऊपर-नीचे शून्य ही शून्य है। इन पडोसी देशों के स्तर पर तेजस्वी और खरे नेतृत्व का नितान्त अभाव है। भारतीय उपमहाद्वीप के देशों के केनवास पर शांति, प्रेम, विकास और सह-अस्तित्व के रंग भरने की अपेक्षा है। भारत इस स्थिति में है, उसे मनोबल के साथ पडोसी देशों में स्थिरता, शांति, लोकतंत्र एवं आपसी समझ की ज्योत जलाने के लिये तत्पर रहना चाहिए, जो उन देशों के साथ भारत के लिये भी जरूरी है।

ललित गर्ग
लेेखक, पत्रकार, स्तंभकार

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