भोजपुरी की मिठास और भोजपुरी गीतों की अश्लीलता के पीछे का मनोविज्ञान ?

भोजपुरी सिनेमा की नियति@ भाग-१

भोजपुरी सिनेमा और गीतों में अश्लीलता के पीछे केवल भोजपुरी इंडस्ट्री का 2 हजार करोड़ का बाजार भर ही नहीं खड़ा है, बल्कि भोजपुरी इंडस्ट्री और बालीवुड का अन्धानुकरण करने की सोच का विस्तार होते जाना भी है।माफ़ करिएगा लेकिन सबसे बड़ा दोगलापन तो भोजपुरी समाज के उस हिस्से से आता है, जिसे परिवार में संस्कार तो चाहिए लेकिन मोबाइल में द्विअर्थी और फूहड़ गीतों को देखना और सुनना भी चाहिए । जिसे रातों-रात देखकर करोड़ों-करोड़ व्यूज़ बढ़ा देना है। चाहे गीतों में वह – ‘लहंगा रिमोट कंट्रोल से ही क्यों न उठा दे या, फिर आग लाग जाता लं.. आदि अनेक गीतों की फूहड़ता से लबरेज पंक्तियां ही क्यों न हों, जिसे लेखक द्वारा यहां लिखने में शर्म महसूस होती। उसे वह यहां लिख नहीं सकता है, लेकिन उसे भोजपुरी समाज का गीतकार लिखेगा और गायक द्वारा गाया और फिल्माया भी जाएगा। इसे हर उस अवसर पर भोजपुरी समाज सुनेगा भी और थिरकेगा भी, जहां उसे उत्सव महसूस होता।


दरअसल यही आधुनिक भोजपुरी समाज के उस हिस्से का दोगलापन है। भोजपुरी सिनेमा की नियति और गीतों में बढ़ती अश्लीलता का कारण। सिनेमा और साहित्य संस्कृति की आधारभूत संरचना हैं, जिस पर चढ़कर वह मानस को रचती है। भोजपुरी साहित्य और सिनेमा का इतिहास बहुत समृद्ध और उत्कृष्ट रहा है। बिरही बिसराम जैसा भोजपुरी का विरही कवि को भोजपुरी का किट्स कह सकते हैं। भिखारी ठाकुर को भोजपुरी का शेक्सपियर कहा जाता है। रघुवीर नारायण,बाबू रामकृष्ण वर्मा, तेग अली ‘तेग’, बाबू अम्बिका प्रसाद,पं0 दूधनाथ उपाध्याय,महेन्द्र मिश्र,मनोरंजन प्रसाद सिन्हा,महाराज खड़ग बहादुर मल्ल,प्रसिद्ध नारायण सिंह, रामविचार पाण्डेय,पं0 महेन्द्र शास्त्री,कविवर ‘चंचरीक,अशांत, विन्ध्वासिनी देवी,जगदीश ओझा ‘सुन्दर, श्यामसुन्दर ओझा, राधा मोहन राधेश,सतीश्वर सहाय वर्मा ‘सतीश आदि अनेक रचनाकार रहें हैं।

भोजपुरी साहित्य में काव्य की रचना सबसे पहले प्रारम्भ हुई, जबकि इसके गद्य का प्रादुर्भाव बहुत पीछे हुआ। भोजपुरी साहित्य के आधुनिक काल का प्रारम्भ सन् 1875 ई0 से माना जा सकता है और बाबू रामकृष्ण वर्मा आधुनिक काल के कवियों की श्रेणी में सर्व प्रथम स्थान के अधिकारी है।

सच कहें तो भोजपुरी का सिनेमा और भोजपुरी का समाज पूरी दुनिया में फैला हुआ है। भोजपुरी ने अपने समाज को न केवल प्रवासी बनाया है बल्कि प्रवासी होने के दर्द को भीतर ही भीतर तक झेला भी है। गिरमिटिया मजदूरों का सबसे बड़ा पलायन तो इसी भोजपुरी माटी से ही हुआ है। जत्था के जत्था नौजवानों को पानी की जहाजों से लाद कर कलकत्ता बंदरगाह से मारीशस, सूरीनाम, त्रिनिदाद, बाली आदि देशों के पठारों और जंगलों को साफ करने के लिए भेजा जाना तो जैसे इसकी नियति ही ब्रितानी हुकूमत ने बना दिया था। छूटती अपनी माटी और अपनों से दूर होने के भय व विरह की वेदना, उसके जीवन का जैसे स्थायी भाव सा बनते चले गयें। विदेशी धरती पर उसका जीवन संघर्ष तो चलता ही रहा लेकिन अपनी धरती पर भी उसका जीवन संघर्ष कम नहीं रहा। संघर्ष का दौर और आलम तो यह था कि अपने देश में भी परदेस बनते चले गएं। भोजपुरी माटी से निकला मानुष कलकत्ता जैसे नगर में पहुंच कर उसे परदेस बनाता रहा। अपनी श्रम शक्ति से उपार्जित धन से बंगालन खुबसूरती को भी आकर्षित करता रहा। लिहाजा उसकी माटी की तड़प और परिजनों की विरह ने विदेशिया को जन्म दिया। वह विदेशिया जो परदेस गया अपनी गरीबी के हिन्द महासागर को काटने लिए लेकिन बंगालन खुबसूरती की ब्रह्मजाल में फंसकर घर और बाहर दो पाटों के बीच फंसते चले गयें। लिहाजा घर की व्यहाता का इंतजार ने विरह को धार दिया और भोजपुरी के शेक्सपियर भिखारी ठाकुर ने उस विरह को स्वर दिया।

लिहाजा हिंदी साहित्य में एक नई विधा ही जुड़ती चली गई जिसे नाम दिया गया -‘विदेशिया’.

यह दौर ब्रिटिश कालीन और उसके बाद का है। जब साहित्य और सिनेमा में भी इस पूरी पट्टी के भूगोल का इतिहास और विरह वेदना को स्वर मिला। बहुत सारे भोजपुरी की इस पीड़ा को लेकर साहित्य रचे गए,फिल्में बनायीं गईं।

लेखक-डॉ अरविन्द सिंह

वरिष्ठ पत्रकार

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